मनीष गौतम रीवा
#मकर_संक्रांति - #स्नान_दान_महत्व_व_उद्देश्य
मकर संक्रांति पर गंगा आदि नदियों में स्नान और दान करने की भारतीय परम्परा है, जिसके महत्व को संक्षिप्त रूप में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ
संक्रान्ति:- एक खगोलीय परिवर्तन
1- सूर्य का दक्षिणायन से उत्तरायण होना
2- सूर्य का राशि परिवर्तन
वैसे तो सूर्य हर माह अपनी राशि परिवर्तन करता है किंतु इस संक्रान्ति में किन्तु मकर संक्रांति पर सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं, जिसकी वजह से इसका विशेष महत्व है
संक्रान्ति स्नान:- आलस्य का त्याग व मेल-मिलाप
1- शीतकाल का मौसम होने से व्यक्ति बिस्तर से उठने, घर से बाहर निकलने और नहाने में आलस्य दिखाता है, संक्रान्ति पर विशेष मुहूर्त में स्नान नदी में स्नान करने के लिए सुबह जल्दी उठकर घर से बाहर निकलना पड़ेगा जिससे हमारे अंदर का आलस्य दूर होता है।
2- प्राचीन काल में स्नान के लिए दूर दूर से लोग आते थे, मार्ग दुर्गम होने से बहुत सारे लोगों का समुदाय चलता था, रास्ते में अन्य समुदाय भी मिलते थे उनके भी साथ भेंट, मुलाकात बात करते हुए घाट पर पहुँचते थे, यहाँ पर भी अन्य जगह से लोग आते हैं उनसे भी सम्बन्ध बनाये थे। बहुत से लोगों का हर साल का नियम होता था स्नान करना जिसमें उनके स्नान करने की जगह भी निर्धारित होते थे, जिसकी वजह से सगे सम्बन्धी स्नान के बहाने मेल-मिलाप भी कर लेते थे। आज भी ग्रामीणों में यह परम्परा देखने को मिलती है। प्रयागराज का कुंम्भ तो मेल-मिलाप के लिए ही प्रसिद्ध है- "माघ मकरगत जब रवि होई। तीर्थ पतिहि आव सब कोई।।
संक्रान्ति दान:- समाज के निर्धन लोगों को सहयोग करना
1- स्नान बाद पंडो को संकल्प दान।
2- स्नान से घर आते समय गरीबों को दान।
3- घर आकर पुरोहित को दान।
संकल्प दान- बिना संकल्प के किया गया कोई भी धार्मिक कार्य फल प्रदान नहीं करता। स्नान पुण्य प्राप्त करने के लिए किया जाता है इसलिए घाट पर पंडो के द्वारा संकल्प कराकर स्नान के पुण्य फल को पाने के लिए दान दिया जाता है। पंडा समाज के पास कई पुस्तों के लेखा जोखा रहता है। हर गाँव का अपना एक निश्चित पंडा परिवार होता था। घाट पर पंडा सिर्फ दान ही नही लेता अपितु घाट की साफ सफाई की भी जिम्मेदारी होती थी। इसके साथ ही नदी की गहराई के बारे में स्नानार्थियों को जानकारी देना, समान की देखभाल करना रहता था। उनकी भी आजिविका का निर्वाह होता रहे इसलिए संकल्प दान की व्यवस्था की गई।
निर्धन-असहायों को दान- यह समाज का वह वर्ग था जो बहुत निर्धन होता था इसके माध्यम से उनको सहायता पहुंचना उद्देश्य होता था। आजकल तो घाट के ही किनारे पर इनकी भीड़ मिल जाती है, किन्तु पहले ऐसा नहीं था। लोग घर लौटते समय नदी के किनारे अथवा मार्ग में जो गरीब निर्धन होते थे उनको वस्त्र, कंबल, अन्न आदि देते हुए घर जाते थे। इसकी वजह से साधन विहीन स्थानों में रहने वाले निर्धन समाज को भी आवश्यकता की वस्तुएं मिल जाती थीं।
पुरोहित दान:- प्राचीन काल में पुरोहित वर्ग का कार्य सिर्फ पूजा/कर्मकांड ही कराना नहीं था, इसके साथ वह समाज के बच्चों को शिक्षा भी प्रदान करना होता था। गाँव नगर से कुछ दूर उनका आश्रम होता था जहाँ गुरूकुल संचालित होता था। पुरोहित वर्ग के कृषि भूमि नही होती थी। आश्रम में रह रहे विद्यार्थियों के साथ उनके परिवार के भोजनादि की व्यवस्था कैसे व्यवस्थित रहे इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति/घर से यह दान दिया जाता था, जिसमे दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली विविध प्रकार की वस्तुएं होती थी। जिसके द्वारा आश्रम की व्यवस्था चलती थी
प्राचीन काल में दान में अच्छी व प्रयोग करने योग्य वस्तुओं का दान किया जाता था, किन्तु आज के समय में प्रायः वैसी स्थिति नहीं है। अधिकांश लोग मात्र खानापूर्ति करते हैं, जो सामान घर मे प्रयोग नहीं हो पाती उसे दान में देते हैं। जो अन्न हमारे आपके घर मे खराब हो जाता है उसे ऐसे अवसरों पर दान देने के लिए प्रयोग करते हैं। सबसे बड़ी हास्यास्पद बात तब होती है जब 250 ग्रा. चावल में पंडे सहित 50 लोगों को पुण्य लाभ के लिए बांट कर चले आते हैं, वो भी अच्छे से नहीं फेंकते हुए। यह देखकर बहुत दुःख होता है कि आदमी कितना स्वार्थी और कंजूस हो गया है। नहीं शक्ति है तो मत दीजिये दान , लेकिन 250 ग्राम में 50 लोगों को बांटकर न तो दान के महत्व को कम कीजिये और न ही दो वक्त की रोटी की लालसा लेकर हाथ फैलाकर बैठे असहायों निर्धनों का मजाक बनाइये। अपने हिस्से में मिले 5 ग्रा.10 ग्रा. कोई कैसे प्रयोग करेगा। यह मिथक है कि ज्यादा लोगों को देने से ज्यादा पुण्य मिलेगा। 1 ही व्यक्ति को दीजिये अच्छा दीजिये वहीँ आपको 50 के बराबर फल देगा। अन्यथा देना न देना बराबर ही है।
इस विषय में अनुसंधान करके शास्त्रीय प्रमाणों के साथ समाज में इसके महत्व व उद्देश्य को बताकर जागरूक करने की आवश्यकता है।
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