मनीष गौतम रीवा
शुम्भ-निशुम्भ का वध करने के बाद मां ने यहीं किया था विश्राम
मां का है इतना तेज कि मात्र दर्शन से ही भस्म हो जाते हैं कई जन्मों के पाप
वाराणसी. भोले नगरी से मशहूर इस काशी के पावन भूमि पर कई देवी मंदिरों का भी बड़ा महात्मय है। यहां दुर्गाकुण्ड में मां दुर्गा का भव्य एवं विशाल मंदिर है। जहां हर समय दर्शनार्थियों का आना लगा रहता है। ख़ासकर नवरात्र में तो इस मंदिर का महत्व और बढ़ जाता है। शारदीय नवरात्र के चौथे दिन मां को कुष्माण्डा माता के रूप में पूजा जाता है। इस दौरान मंदिर को भव्य तरीक़े से सजाया जाता है। इस मंदिर में देवी का तेज इतना भीषण है मां के सामने खड़े होकर दर्शन करने मात्र से ही कई जन्मों के पाप जलकर भस्म हो जाते हैं।
भारतीय संस्कृति में मां दुर्गा को सृजनात्मक शक्ति, मातृ शक्ति व दिव्य शक्ति के रूप में प्रतिष्थापित किया गया है। शक्ति ही चेतना है, सौन्दर्य है और इसी में संपूर्ण विश्व निहित है। शक्ति के इसी महत्व के कारण मां आद्य शक्ति अपने तीन मूल स्वरूपों महालक्ष्मी, महासरस्वती व महाकाली के माध्यम से विश्व की समूची ऐश्वर्य संपदाओं की स्वामिनी, विद्याओं की अधिष्ठात्री व समस्त शक्तियों की मूलाधार मानी गई हैं। बाबा भोलेनाथ के त्रिशूल पर टिकी विश्व की तीन लोक से न्यारी काशी में मां आद्य शक्ति अदृश्य रूप में दुर्गाकुंड मंदिर में विराजमान हैं। माता का यह सिद्ध मंदिर बाबा भोलेनाथ की नगरी का प्राचीनतम मंदिर माना जाता है। मान्यता है कि यह मंदिर आदिकालीन है। आदिकाल में काशी में तीन ही मंदिर थे- श्री काशी विश्वनाथ, मां अन्नपूर्णा और दुर्गा मंदिर।
इस मंदिर का निर्माण 1760 ई0 में रानी भवानी ने कराया था। उस समय मंदिर निर्माण में पचास हजार रुपये की लागत आई थी। मान्यता है कि शुम्भ-निशुम्भ का वध करने के बाद मां दुर्गा ने थककर दुर्गाकुण्ड स्थित मंदिर में ही विश्राम किया था। दुर्गाकुण्ड क्षेत्र पहले वनाच्छादित था। इस वन में उस समय काफी संख्या में बंदर विचरण करते थे। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में आबादी बढ़ने पर पेड़ों के साथ बंदरों की संख्या भी घट गई। मां दुर्गा का यह मंदिर नागर शैली में निर्मित किया गया। इस मंदिर स्थल पर माता भगवती के प्रकट होने का संबंध अयोध्या के राजकुमार सुदर्शन की कथा से जुड़ा है।
मां के विरोधियों के रक्त से बना यह कुंड (दुर्गाकुंड)
राजकुमार सुदर्शन की शिक्षा-दीक्षा प्रयागराज में भारद्वाज ऋषि के आश्रम में हुई थी। शिक्षा पूरी होने के उपरान्त राजकुमार सुदर्शन का विवाह काशी नरेश राजा सुबाहू की पुत्री से हुआ। इस विवाह के पीछे रोचक कथानक है कि काशी नरेश राजा सुबाहू ने अपनी पुत्री के विवाह योग्य होने पर उसके स्वयंवर की घोषणा की। स्वयंवर दिवस की पूर्व संध्या पर राजकुमारी को स्वप्न में राजकुमार सुदर्शन के संग उनका विवाह होता दिखा। राजकुमारी ने अपने पिता काशी नरेश सुबाहू को अपने स्वप्न की बात बताई। काशी नरेश ने इस बारे में जब स्वयंवर में आये राजा-महाराजाओं को बताया तो सभी राजा सुदर्शन के खिलाफ हो गये व सभी ने उसे सामूहिक रूप से युद्ध की चुनौती दे डाली।
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