मनीष गौतम रीवा
अष्टभुजा देवी महासरस्वती जो देती हैं विद्या एवं धन दोनों
अष्टभुजा देवी का मंदिर नगर से तीन मील पश्चिम लगभग 300 फुट की ऊँचाई पर स्थित है जिसपर जाने के लिए 160 पत्थर की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। देवी की प्रतिमा एक लंबी और अँधेरी गुफा में है। गुफा के अंदर घृत दीप जलता रहता है, जिसके प्रकाश में यत्री देवी जी का दर्शन करते हैं। यह स्थान बड़ा दिव्य और रमणीक है।
मार्कण्डेय पुराण के अंतर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय के 41-42 श्लोकों में मां भगवती कहती हैं ‘वैवस्वत मन्वंतर के 28वें युग में शुंभ-निशुंभ नामक महादैत्य उत्पन्न होंगे, तब मैं नंदगोप के घर उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ में अवतीर्ण हो विंध्याचल जाऊंगी और महादैत्यों का संहार करूंगी। श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में श्रीकृष्ण जन्माख्यान में वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजी ने कंस के भय से रातोंरात यमुना नदी पार कर नंद के घर पहुंचाया तथा वहां से यशोदा नंदिनी के रूप में जन्मीं योगमाया को मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म की सूचना मिलते ही कंस कारागार पहुंचा। उसने जैसे ही कन्या को पत्थर पर पटककर मारना चाहा। वह उसके हाथों से छूट आकाश में पहुंची और दिव्य स्वरूप दर्शाते हुए कंस वध की भविष्यवाणी कर विंध्याचल लौट गई
जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है अष्टभुजा मन्दिर देवी अष्टभुजा को समर्पित है जो कि भगवान कृष्ण को पालने वाली माता यशोदा की पुत्री थीं। लोककथाओं के अनुसार वे मथुरा के राक्षस राजा कंस के क्रूर हाथों से चमत्कारिक रूप से छूट कर विन्ध्याचल की पहाड़ियों पर आकर बसीं। यह जादुई मन्दिर विन्ध्याचल पहाड़ियों के ऊपर स्थित है। अष्टभुजा मन्दिर को भी इसी क्रम में बनाया गया था। यह विन्ध्यवासिनी देवी को समर्पित मन्दिर से तीन किमी की दूरी पर स्थित है।
मन्दिर चमत्कारिक पहाड़ियों की पृष्ठभूमि में स्थित है और अपने शांत और सुन्दर दृश्यों के कारण भक्तों के साथ-साथ पर्यटकों के बीच भी लोकप्रिय है। प्राचीन काल में यह राजाओं का पसन्दीदा स्थान था जो शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये तान्त्रिकों की मदद से गुप्त पूजाओं, यज्ञों और अनुष्ठानों के लिये यहाँ आते थे।
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