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भारत ने भी छाता तान लिया। यानी बारिश हुई अमेरिका में छाता तान लिया गया भारत में

आस्था की शक्ति मनीष गौतम रीवा *व्यंग्य कोरोना का छुपा छुपाई का खेल* शुरू-शुरू में कोरोना एक आम रोग लगा था, जो कि पक्षियों, ख़ासकर चमगादड़ का मांस खाने से हो जाता है। लक्षण भी सामान्य थे, बार-बार खांसी, छींक का आना, बुख़ार और फिर उलझन। क़रीब 97 प्रतिशत रोगी स्वतः ठीक हो जाते हैं। बस तीन प्रतिशत ही कोरोना के कारण मारते हैं। वे भी वही, जो मधुमेह, रक्तचाप या हृदय, किडनी या लीवर सिरोसिस के शिकार हों। चूँकि हमारे यहाँ चमगादड़ का माँस कोई नहीं खाता, इसलिए सब गदगद थे, कि मरे ससुरे चीनी। किसी ने इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया। फिर यह पसरा ईरान में, और उसके बाद सऊदी अरब में, तब भारत में भी सुगबुग़ाहट हुई। सऊदी अरब या दुबई से आने वालों को शक की निगाह से देखा जाने लगा। लेकिन हवाई अड्डों पर इन देशों से आने वाले यात्रियों की आवाजाही पर न रोक लगी, न जाँच हुई। इसके बाद इटली में इसने पाँव पसारा, फिर फ़्रांस, इंग्लैंड और अंततः अमेरिका। तब तो । फटाफट कोरोना वार्ड खुले, जाँच शुरू हुईं और संक्रमित लोगों को क्वारंटीन करने की व्यवस्था हुई। शुरू-शुरू में सब चकाचक! क्योंकि बीमारी अमीरों को होती थी। बार-बार हाथ धोना, मॉस्क लगाना, या किसी को भी न छूना, यह सब अमीरों का पहले से शग़ल था। सब कुछ बंद कर दिया गया। ऑफ़िस, शॉप्स, माल्स, सिनेमा और ट्रेन, वायुयान, जलयान, ट्राम, बसें तथा निजी वाहन आदि सब। जो जहां था, वहीं का होकर रह गया। जो सड़क पर खड़ा था, वह सड़क पर खड़ा रहा, जो जंगल में था वह जंगल में। डॉक्टर, पुलिस सब मुस्तैद। मुनादी हो गई, कि सिर्फ़ कोरोना की जाँच होगी। बाक़ी सब बंद। जचगी का काम तक रोक दिया गया। सभी अमीरों और माननीयों की जाँच हो गई तब अफ़सरों का नम्बर आया। और हर ज़िले में पहले वीवीआईपी अफ़सरों की जाँच हुई फिर सेकंड कैटेगरी के अफ़सरों की। फिर कुछ और जाँच-किट्स आईं और उसके बाद कुछ और वेंटिलेटर। लेकिन आम आदमी की पहुँच में न जाँच थी न इलाज। उसे बस ऊपर वाले पर भरोसा था। फिर जब ये अमीर ठीक हो गए, तो बंद खुलना शुरू हुआ। कहा गया "जहान को भी बचाओ!" मज़दूर भगाए जाने लगे। प्रचारित किया गया, कि ये लोग हमारे साफ़-सुथरे शहरों में गंद फैलाते हैं, इनको भगाओ। वे जा रहे हैं और साथ में कोरोना को भी ले जा रहे हैं, दूर देहातों की ओर। अर्थात् कोरोना अब गाँवों की तरफ़ जा रहा है। इसलिए वे ज़िले और शहर अब संक्रमित हो रहे हैं, जो 50 दिनों तक ग्रीन ज़ोन में रहे। न अब डॉक्टर मुस्तैद हैं न पुलिस चुस्त है। न लव अग्रवाल रोज़ प्रेस कान्फ्रेंस करते हैं, जबकि मरीज़ अब लाख से ऊपर हैं। जब 500 मरीज़ थे, तब कर्फ़्यू लगा और जब लाख से ऊपर हैं, तो सब खुला। कितना शानदार रहा यह कोरोना की छुअन-छुआई का खेल!


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