मनीष गौतम रीवा
ज़िंदगी के सही मायने
सिखाती है महामारी
कोरोना वारयस ने न सिर्फ लाखों लोगों की शारीरिक सेहत पर हमला किया है, बल्कि इसने दुनिया भर में करोड़ों लोगों की मानसिक और भावनात्मक सेहत को भी हिलाकर रख दिया है। ऐसे में सवाल उठता
है कि क्या चुनौती और असमंजस से भरे इस वक्त मेंअपनी दिमागी सेहत को दुरुस्त रखने के लिए हम कुछ कर सकते हैं? किसी खराब स्थिति में लोग कैसे रिऐक्टकरते हैं, यह काफी अहम है। मुश्किल वक्त में जहां कुछ लोग बुरी तरह टूट जाते हैं वहीं
कुछ लोग पहले से भी ज्यादा मजबूत होकर निकलते हैं।तमाम रिसर्च का नतीजा यह है कि जिन लोगों ने ट्रैजिक ऑप्टिमिज़म (दुख में
भी सकारात्मकता) का नज़रिया अपनाया, वे इस स्थिति से बेहतर तरीके से निपट सके, बजाय उनके जिन्होंने दुख में अच्छा महसूस करने के लिए खुशी पर फोकस किया। ट्रैजिक ऑप्टिमिज़म का मतलब है दुख, नुकसान और पीड़ा के बावजूद उम्मीद बनाए रखना और ज़िदगी का मतलब तलाशना। जो लोग इसमें
विश्वास करते हैं, वे खराब-से-खराब स्थिति में भी उम्मीद और गहरे अंधरे में भी रोशनी तलाश लेते हैं।
बहुत-सी रिसर्चके बाद सायकॉलजिस्ट अब मानने लगे हैं कि किसी भी ट्रॉमा की स्थिति में टूटनेवाले लोगों की तादाद कम होती है जबकि करीब आधे से लेकर
दो-तिहाई तक लोग इस स्थिति के बाद विजेता के तौर पर बाहर निकलते हैं। दुख और परेशानी का यह वक्त उन्हें और मजबूत करता है। क्राइसिस के बाद लोग अपनी ज़िदगी के मकसद, रिश्ते और ज़िदगी को तवज्जो देने लगते हैं।गौर करने वाली बात यह है कि खराब स्थिति नहीं, बल्कि इस स्थिति में उनके रिऐक्ट करने का तरीका, लोगों को मजबूत होना सिखाता है। इस तरह के हालात से बचकर निकलनेवाले लोग खुद भी खराब हालात में सकारात्मकता को तलाश करने लगते हैं। यह सच है कि कुछ लोग दूसरों के मुकाबले कुदरती तौर पर ज्यादा पॉजिटिव सोच वाले होते हैं, लेकिन सायकॉलजिस्ट के अनुसार बेहद हताश और निराश शख्स में भी संकट के दौर में ज़िंदगी के मायने ढूंढने की क्षमता होती है।
हालांकि किसी दुखद हालात में कुछ अच्छा ढूंढने की बात करना सही नहीं है, लेकिन जब भी इस तरह के हालात की स्टडी की गई तो नतीजे कुछ और ही रहे। मसलन 11 सितंबर के हमले के बाद जब अमेरिका में 1000 लोगों पर स्टडी की गई तो 58 फीसदी ने इस हमले के सकारात्मक नतीजे बताए, मसलन ज़दगी िं की कद्र करना, अध्यात्म से जुड़ाव आदि। यही नहीं, लोगों ने शारीरिक फिटनेस को भी ज्यादा तवज्जो देना शुरू किया। हालांकि ट्रैजिक ऑप्टिमिज़म का मतलब खुशी कतई नहीं है।
हां, कोई भी खुश रहने के तरीके जरूर तलाश सकता है। जब लोग वह काम करते हैं, जो उन्हें खुशी देता है जैसे कि गेम खेलना या सोना आदि तो वे अच्छा महसूस करते हैं। लेकिन यह अहसास बहुत जल्दी खत्म भी हो जाता है। दूसरी ओर, जब लोग वह काम करते हैं जो उनकी ज़दगी िं को ज्यादा अर्थपूर्ण बनाता है जैसे कि किसी दूसरे की मदद करना निस्स्वार्थ भाव से कोई काम करना तो यह
उनमें संतुष्टि और सकारात्मकता का अहसास भरता है। वे न सिर्फ प्रेरित महसूस करते हैं बल्कि अपने से बड़ी और किसी महान शक्ति का हिस्सा बनने का अहसास भी उनमें होता है। जैसे कि मौजूदा कोरोना क्राइसिस में लोग एक-दूसरे की मदद को आगे आ रहे हैं। वे हेल्प ग्प बना रु कर काम कर रहे हैं। बहुत-सी कंपनियां और लोग मुफ्त में सेवा दे रहे हैं। लोग स्वीकार कर रहे हैं कि वे दूसरों से ज्यादा जुड़ाव महसूस कर रहे
हैं। इस परिस्थिति में जो लोग दूसरों की देखभाल कर रहे हैं या बाहर जाकर काम कर रहे हैं, मसलन डॉक्टर, मेडिकल स्टाफ, पुलिस, मीडिया कर्मी, समाजसेवी आदि,
उनके लिए लोगों के दिलों में सम्मान बढ़ा है। इतिहास में इस वक्त को खुशहाल दौर के तौर पर बेशक दर्ज न किया जाए, लेकिन उम्मीद और ज़दगी िं के मायने तलाशने
वाले वक्त के तौर पर जरूर याद किया जाएगा।तो क्या कहें कि महामारी अच्छी बात है? बिलकुल नहीं। अच्छा होता कि महामारी
होती ही नहीं। लेकिन जैसा कि बौद्ध धर्मकहता है: ज़दगी 10 हजार खु िं शियों और 10 हजार दुखों का नाम है। हम कितनी भी कोशिश करें, दुख या तकलीफों से बच नहीं सकते। बेहतर है हम मुश्किल वक्त को अच्छे-से जीना सीख जाएं।
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